मूंगफली की खेती करने का सही तरीका। आधुनिक और वैज्ञानिक विधि। के बारे में बात करेंगे
सबसे पहले मूंगफली की खेत के बारे में सही जानकारी
मूँगफली का वानस्पतिक नाम – Arachis Hypogaea है। इसका उद्भव स्थल – ब्राजील माना जाता है। मूंगफली एक ऐसी फसल है जिसका कुल लेग्युमिनेसी होते हुये भी यह तिलहनी के रूप मे अपनी विशेष पहचान रखती है। मूँगफली के दाने मे 48-50 % वसा और 22-28 % प्रोटीन तथा 26% तेल पाया जाता हैं |
मूँगफली की खेती 100 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है। यह भारत में दलहन, तिलहन, खाध्य व नकदी सभी प्रकार की फसलें उगायी जाती हैं| तिलहनी फसलों की खेती में सरसों, तिल, सोयाबीन व मूँगफली आदि प्रमुख हैं | मूँगफली गुजरात के साथ साथ राजस्थान की भी प्रमुख तिलहनी फसल हैं
मूंगफली की खेती : मूँगफली की खेती आधुनिक व वैज्ञानिक विधि से करने की जानकारी
राजस्थान में बीकानेर जिले के लूणकरनसर में अच्छी किस्म की मूँगफली का अच्छा उत्पादन होने के कारण इसे राजस्थान का राजकोट कहा जाता हैं। मूंगफली की खेती करने से भूमि की उर्वरता भी बढ़ती है। यदि किसान भाई मूंगफली की आधुनिक खेती करता है तो उससे किसान की भूमि सुधार के साथ किसान कि आर्थिक स्थिति भी सुधर जाती है। मूंगफली का प्रयोग तेल के रूप मे, कापडा उधोग एवम बटर बनाने मे किया जाता है जिससे किसान भाई अपनी आर्थिक स्थिति मे भी सुधार कर सकते है। मूंगफली की आधुनिक खेती के लिए निम्न बातें ध्यान में रखना बहुत ही जरूरी हैं |
कहाँ होती है मूँगफली की खेती –
मूंगफली खरीफ की मुख्य तिलहनी फसल है । भारत के अलावा मूंगफली की खेती चाइना,जापान,म्यमार,ऑस्ट्रेलिया,पश्चिमी अफ्रीका,आदि देशों की जाती है | हमारे देश में यह तमिलनाडु,आंध्रप्रदेश,गुजरात,महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है | उत्तर प्रदेश में यह मुख्यतः झांसी, हरदोई, सीतापुर, खीरी, उन्नाव, बहराइच, बरेली, बदायूं, एटा, फर्रुखाबाद, मुरादाबाद एवं सहारनपुर जनपदों में अधिक क्षेत्रफल में उगाई जाती है।
जलवायु व तापमान –
मूंगफली एक ऊष्ण कटिबन्धीय पौधा है | इसके पौधों में वृद्धि व विकास के लिए ग्रीष्मकालीन जलवायु उत्तम रहती है | यह वायु और वर्षा द्वारा भूमि को कटने से बचाती है। 100 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मूंगफली की पैदावार अच्छी होती है। मूंगफली के फसल के लिए 21 से 27 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होती है | कम तापमान इसकी फसल के लिए हितकर नही है |
मूंगफलीकी खेती हेतु उन्नत किस्में –
मूंगफली के अंतर्गत क्षेत्रफल, कुल उत्पादन तथा उत्पादकता के विगत 5 वर्षों के आंकड़े परिशिष्ट-2 में दिये गये है।निम्न सघन पद्धतियां अपनाकर मूंगफली की उत्पादकता में पर्याप्त वृद्धि की जा सकती है।
1. संस्तुत उन्नत प्रजातियां –
आर जी 425 –
इस किस्म के पौधे सूखे के प्रति सहनशील पाए जाते है इसलिए इसे राजस्थान राज्य में सबसे अधिक उगाया जाता है। मूंगफली की बिजाई के बाद लगभग 120 से 130 दिन बाद फसल पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म का उत्पादन प्रति हेक्टर 20 से 30 क्विंटल तक पाया जाता है।
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एम ए 10 –
इस किस्म के पौधे सामान्य उचाई के पाए जाते है इस किस्म की फसल 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसका उत्पादन प्रति हेक्टर 25 से 30 क्विंटल तक होता है। इस किस्मे की फसल में लगभग 49 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है।
टी जी 37 ए –
इस किस्म के पौधे 120 से 130 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाते है अगर पोधो को समय पर नहीं निकाला जाता तो बीज फिर से अंकुरित हो जाते है। इसका उत्पादन 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्यर तक पाया जाता है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 50 प्रतिशत के आसपास पाई जाती है।
एम 548 –
यह किस्म मुख्य रूप से रेतीली जमींन में उगाई जाती है। इसकी रोपाई बारिश के समय की जाती है इसकी फसल 120 से 126 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। इसका उत्पादन प्रति हेक्टर 25 से 27 क्विंटल के आसपास पाया जाता है।
जी 201 –
इस किस्म का दूसरा नाम कौशल है। इस किस्म की फसल लगभग 110 दिन से लेकर 120 दिन के बिच तैयार हो जाती है। इसका उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है। सिचाई वाले एरिया में इसका अधिक उत्पादन भी पाया जाता है।
निम्न प्रजातियां सम्पूर्ण उ.प्र. संस्तुत की गयी है। – –
ए के 12 – 24, आर जे 382, नंबर 13, एम 13, एम 522, एम 197, अम्बर, प्रकाश, टी जी – 26, एस जी 84, एच एन जी 10, दिव्या, एस जी 99, एच एन जी 69, जी जी 20, सी 501, जी जी 7, आर जी 425, मूंगफली की टी.जी.-37, एच.एन.जी.-10, चन्द्रा, टी.बी.जी.-39, एम-13 व मल्लिका आदि अधिक उपज देने वाली किस्में है | एक बीघा क्षैत्र में एच.एन.जी.-10 का 20 किग्रा बीज (गुली) का प्रयोग करें | एम-13, चन्द्रा तथा मल्लिका आदि किस्मों के लिये 15 किग्रा बीज का प्रयोग करें| बीजाई के 15 दिन से पहले गुली नहीं निकालनी चाहिए |
मूंगफली की खेती हेतु बीज दर –
बुवाई का समय –
हमारे देश में मूंगफली की बुवाई विभिन्न क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा व जलवायु के ध्यान में रखकर की जाती है –
– दक्षिण भारत के सिंचित क्षेत्रों में – 15 मई – 15 जून तक
– उत्तर भारत में – 15 जून से 15 जुलाई तक
अंतरण व दूरी-
– कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर
– पौध से पौध की दूरी 15 सेंटीमीटर
बोने की गहराई –
मूंगफली के बीजों को हल्की भूमि में 5 से 7 सेंटीमीटर व भारी भूमि में 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई में बोते हैं |
बीज की मात्रा –
मूंगफली की फसल हेतु बीज की मात्रा मूंगफली की किस्म व अंतरण,भूमि की नमी व बीज के आकार आदि पर निर्भर करती है –
– फैलने वाली किस्मों के लिए – 60-70 किलोग्राम
– गुच्छेदार किस्मों के लिए – 90-100 किलोग्राम
बीजों को प्रमाणित/बीज उपचारित करना –
बोने से पूर्व बीज (गिरी) को थीरम 2.0 ग्राम और 1.0 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत घु चू० प्रति किलो बीज की दर से शोधित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम+1 ग्राम कार्बक्सिन प्रति किग्रा० बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।इस शोधन के 5-6 घन्टे बाद बोने से पहले बीज को मूंगफली के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें।
एक पैकेट 10 किलोग्राम बीज के लिए पर्याप्त होता है। कल्चर को बीज में मिलाने के लिए आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ घोल लें।
फिर इस घोल में 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर का पूरा पैकट मिलायें, !इस मिश्रण को 10 किलोग्राम बीज के ऊपर छिड़कर कर हल्के हाथ से मिलाये, जिससे बीज के ऊपर एक! हल्की पर्त बन जाय। इस बीज को साये में 2-3 घन्टे सुखाकर बुवाई प्रातः 10 बजे! तक या शाम को 4 बजे के बाद करें। तेज धूप में कल्चर के जीवाणु! के मरने की आशंका रहती है। ऐसे खेतों में जहां मुंगफली पहली !बार या काफी समय बाद बोई जा रही हो, !कल्चर का प्रयोग अवश्य करें।
थाईरम 2 ग्राम और काबेंडाजिम 50% धुलन चूर्ण के मिश्रण को 2 ग्राम प्रति! किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहियें। इस !उपचार के बाद (लगभग 5-6 घन्टे ) अर्थात बुवाई से पहले !मूंगफली के बीज को राइजोबियम कल्चर से भी उपचारित करना चाहिये ! ऐसा करने के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पेकेट! 10 किलो बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होता है |
कल्चर को बीज मे मिलाने के लिए आधा लीटर पानी! मे 50 ग्राम गुड़ घोलकर इसमे 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर का पुरा !पेकेट मिलाये इस मिश्रण को 10 किलो बीज के !ऊपर छिड़कर कर हल्के हाथ से मिलाये, जिससे बीज के ऊपर एक हल्की परत बन जाए। इस बीज को छांयां में 2-3 घंटे सुखने के लिए रख दें | बुवाई प्रात: 10 बजे से पहले या शाम को 4 बजे के बाद करें। जिस खेत में पहले मूंगफली की खेती नहीं की गयी हो उस खेत मे मूंगफली की बुवाई से पुर्व बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लेना बहुत ही लाभकारी होता है |
फसल चक्र –
असिंचित क्षेत्रों में सामान्य रूप से फैलने वाली किस्में ही उगाई जाती हैं जो प्रायः देर से तैयार होती है। ऐसी दशा में सामान्य रूप से एक फसल ली जाती है। परन्तु गुच्छेदार तथा शीघ्र पकने वाली किस्मों के उपयोग करने पर अब साथ में दो फसलों का उगाया जाना ज्यादा संभव हो रहा है। सिंचित क्षेत्रों में सिंचाई करके जल्दी बोई गई फसल के बाद गेहूँ की खासकर देरी से बोई जाने वाली किस्में उगाई जा सकती हैं।
मूंगफली की बुवाई की विधि –
मूंगफली की खेती के लिए मूंगफली की बुवाई प्रायः मानसून शुरू होने के साथ ही हो जाती है! उत्तर भारत में यह समय सामान्य रूप से 15 जून से 15 जुलाई के मध्य का होता है! कम फैलने वाली किस्मों के लिये बीज की मात्रा 75-80 कि.ग्राम. प्रति हेक्टर एवं फैलने! वाली किस्मों के लिये 60-70 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर उपयोग में लेना !चाहिए बुवाई के बीज निकालने के लिये स्वस्थ फलियों का चयन करना चाहिए या! उनका प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए। बोने से 10-15 दिन !पहले गिरी को फलियों से अलग कर लेना चाहिए।
बीज को बोने से पहले 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम !मेन्कोजेब या कार्बेण्डिजिम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से !उपचारित कर लेना चाहिए। इससे बीजों का अंकुरण अच्छा होता है तथा ! प्रारम्भिक अवस्था में लगने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है! दीमक और सफेद लट से बचाव के लिये !क्लोरोपायरिफास (20 ई.सी.) का 12.50 मि.ली. प्रति किलो बीज !का उपचार बुवाई से पहले कर लेना चाहिए।
मूंगफली को कतार में बोना चाहिए। गुच्छे वाली/कम फैलने !वाली किस्मों के लिये कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा फैलने !वाली किस्मों के लिये 45 से.मी.रखें। पौधों से पौधों की! दूरी 15 से. मी. रखनी चाहिए। बुवाई हल के पीछे, हाथ से या सीडड्रिल द्वारा की ! जा सकती है। भूमि की किस्म एवं नमी की मात्रा के ! अनुसार बीज जमीन में 5-6 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।
हमारे देश में मूंगफली की बुवाई निम्न प्रकार से करते हैं –
हल के पीछे बुवाई करने की परम्परागत विधि –
इस विधि में किसान भाई हल के द्वारा कूंड बनाते हुये 5 से 6 सेंटीमीटर गहराई में 30-45 सेंटीमीटर कूंडों के अन्तराल पर बुवाई करते हैं | बुवाई के बाद पटेला चलाकर खेत को समतल कर लेते हैं |
सीड प्लांटर यंत्र द्वारा मूंगफली की बुवाई करना –
इस विधि से किसान भाई अधिक क्षेत्रफल में कम समय में बुवाई कर सकते हैं | इस विधि से बुवाई करने पर बीज निश्चित गहराई व अंतराल सामान रूप से बोया जाता है | बीज की मात्रा के साथ-साथ प्रति इकाई क्षेत्र में बुवाई करने पर खर्च भी कम आता है |
डिबलर द्वारा बुवाई करना –
कम क्षेत्रफल के लिए इस विधि से बुवाई कर सकते हैं किन्तु अधिक क्षेत्रफल में बुवाई हेतू यह बिलकुल अव्यवहारिक है | इस विधि से बुवाई करने में श्रम व लागत अधिक लगती है |
मूंगफली की फसल में खाद व उर्वरक –
मूंगफली की अच्छी पैदावार लेने के लिए उर्वरकों का प्रयोग बहुत आवश्यक है। यह उचित होगा कि उर्वरकों का प्रयोग भूमि परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाय। यदि परीक्षण नहीं कराया गया है तो नत्रजन 20 किलोग्राम, फास्फोरस 30 किलोग्राम, पोटाश 45 किलोग्राम (तत्व के रूप में) जिप्सम 250 किलोग्राम एवं बोरेक्स 4 किलोग्राम, प्रति हे० की दर से प्रयोग किया जाय।
फास्फेट का प्रयोग सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में किया जाय तो अच्छा रहता हैं यदि फास्फोरस की निर्धारित मात्रा सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में प्रयोग की जाय तो पृथक से जिप्सम के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती हैं नत्रजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस और पोटाश खादों की सम्पूर्ण मात्रा तथा जिप्सम की आधी मात्रा कूड़ों में नाई अथवा चोगें द्वारा बुवाई के समय बीज से करीब 2-3 सेमी० गहरा डालना चाहिए।
नत्रजन एवं जिप्सम की शेष आधी मात्रा तथा बोरेक्स की सम्पूर्ण मात्रा फसल की 3 सप्ताह की अवस्था पर टाप ड्रेसिंग के रूप में बिखेर कर प्रयोग करें तथा हल्की गुड़ाई करके 3-4 सेमी० गहराई तक मिट्टी में भली प्रकार मिला दें। जीवाणु खाद जो बाजार में वृक्ष मित्र के नाम से जानी जाती है। इसकी 16 किग्रा० मात्रा प्रति हे० डालना अच्छा रहेगा क्योंकि इसके प्रयोग से फलियों के उत्पादन में वृद्धि के साथ साथ गुच्छेदार प्रजातियों में फलियॉ एक साथ पकते देखी गई है।
मूँगफली में जैविक खाद नीम की खली का प्रयोग –
नीम की खल के प्रयोग का मूंगफली के उत्पादन में अच्छा प्रभाव पड़ता है। अंतिम जुताई के समय 400 कि.ग्रा. नीम खल प्रति हैक्टर के हिसाब से देना चाहिए। नीम की खल से दीमक का नियंत्रण हो जाता है तथा पौधों को नत्रजन तत्वों की पूर्ति हो जाती है। नीम की खल के प्रयोग से 16 से 18 प्रतिशत तक की उपज में वृद्धि, तथा दाना मोटा होने के कारण तेल प्रतिशत में भी वृद्धि हो जाती है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों में अधिक उत्पादन के लिए जिप्सम भी प्रयोग में लेते हैं।
मूंगफली की फसल में सिंचाई करना –
यदि वर्षा न हो और सिचांई की सुविधा हो तो आवश्यकतानुसार दो सिंचाइयां खूंटियों (पेगिंग) तथा फली बनते समय देना चाहिए। मूंगफली खरीफ फसल होने के कारण इसमें सिंचाई की प्रायः आवश्यकता नहीं पड़ती। सिंचाई देना सामान्य रूप से वर्षा के वितरण पर निर्भर करता हैं फसल की बुवाई यदि जल्दी करनी हो तो एक पलेवा की आवश्यकता पड़ती है। यदि पौधों में फूल आते समय सूखे की स्थिति हो तो उस समय सिंचाई करना आवश्यक होता है।
फलियों के विकास एवं गिरी बनने के समय भी भूमि में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है।
जिससे फलियाँ बड़ी तथा खूब भरी हुई बनें। अतः वर्षा की मात्रा के अनुरूप सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है। मूंगफली की फलियों का विकास जमीन के अन्दर होता है। अतः खेत में बहुत समय तक पानी भराव रहने पर फलियों के विकास तथा उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। अतः बुवाई के समय यदि खेत समतल न हो तो बीच-बीच में कुछ मीटर की दूरी पर हल्की नालियाँ बना देना चाहिए। जिससे वर्षा का पानी खेत में बीच में नहीं रूक पाये और अनावश्यक अतिरिक्त जल वर्षा होते ही बाहर निकल जाए।
मूंगफली की फसल में निकाई-गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण –
गफली की बुवाई के 2 दिनों के अन्दर लासो 50 ई.सी. (एलाक्लोर) 5.0 लीटर प्रति हे. की दर से 500 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करना चाहिए।
उपरोक्त के अतिरिक्त आक्सीफ्लोरोफेन 23.5 ई.सी. की 600 मिली. मात्रा500-600 लीटर पानी प्रति हे. अथवा 240 से 250 लीटर पानी के साथ उपरोक्तानुसार स्प्रे करने से सभी खरपतवारों का अंकुरण नहीं होता है।
बुवाई के तुरन्त पूर्व वेसालिन 45 र्इ.सी. (फ्लूक्लोरेलिन) अथवा ट्रेफ्लान 48 ई.सी. (ट्रेइफ्लूरेलिन) 1500 मिली. मात्रा 500 से 600 लीटर पानी प्रति हे. अथवा 600 मिली. की बुवाई करने पर घास कुल एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का बहुत ही अच्छा नियन्त्रण सम्भव है।
परस्यूट/लगान 10 ई.सी. (इमेजीथाइपर) की 1000 मिली. मात्रा 500 से 600 लीटर पानी के साथ प्रति हेक्टर अथवा 400 मिली. मात्रा 200 से 250 लीटर प्रति एकड़ बुवाई के तीन दिन के अन्दर अथवा बुवाई के 10 से 15 दिनों पर स्प्रे करने से घासकुल एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है।
मूंगफली की फसल में लगने वाले रोग व उनकी रोकथाम –
मूंगफली की सफेद गिडार –
इसकी गिडारें पौधों की जड़ें खाकर पूरे पौधे को सुखा देती हैं। गिडारें पीलापन लिए हुए सफेद रंग की होती हैं, जिनका सिर भूरा कत्थई या लाल रंग का होता है, ये छूने पर गेन्डुल के समान मुड़कर गोल हो जाती हैं। इसका प्रौढ़ मूंगफली की फसल को हानि नहीं करता। यह प्रथम वर्षा के बाद आसपास के पेड़ों पर आकर मैथुन क्रिया करता है तथा पुनः 3-4 दिन बाद खेतों में जाकर अण्डे देता है। या प्रौढ़ को पेड़ों पर ही मार दिया जाय तो इनकी संख्या की वृद्धि में काफी कमी हो जायेंगी।
बचाव व रोकथाम : मानसून के प्रारम्भ पर 2-3 दिन के अंदर पोषक पेड़ों जैसे नीम, गूलर आदि पर प्रौढ़ कीट को नष्ट करने के लिए कार्बराइल 0.2 प्रतिशत या मोनोक्रोटोफास 0.05 प्रतिशत या फेन्थोएट 0.03 प्रतिशत या क्लोरपाइरीफास 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
बुवाई के 3-4 घंटे पूर्व क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. या क्यूनालफास 25 ई.सी. 25 मिली. प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज का उपचारित करके बुवाई करें। खड़ी फसल में प्रकोप होने पर क्लोरपायरीफास या क्यूनालफास रसायन की 4 लीटर मात्रा प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग किया करें। एनी सोल फैरोमोन का प्रयोग करें।
. दीमक –
पहचान ये सूखे की स्थिति में जड़ों तथा फलियों को काटती हैं। जड़ कटने से पौधे सूख जाते हैं। फली के अन्दर गिरी के स्थान पर मिट्टी भर देती है।
बचाव व रोकथाम : सफेद गिडार के लिए किये गये बीजोपचार एंव कीटनाशक का प्रयोग सिंचाई के पानी के साथ करने से दीमक का प्रकोप रोका जा सकता हैं।
हेयरी कैटरपिलर –
जब फसल लगभग 40-45 दिन की हो जाती है तो पत्तियों की निचली सतह पर प्रजनन करके असंख्य संख्यायें तैयार होकर पूरे खेत में फैल जाते हैं। पत्तियों को छेदकर छलनी कर देते हैं, फलस्वरूप पत्तियां भोजन बनाने में अक्षम हो जाती हैं।
बचाव व रोकथाम : डाईक्लोरवास 75% प्रति ई.सी. 1 ली०/हे० की दर से वर्णीय छिड़काव करना चाहिए।
सूत्रकृमि :
सूत्रकृमि जनित बीमारियों रोकने के लिये हरी खाद गर्मी की गहरी जुताई या खलियों की खाद का उचित मात्रा में प्रयोग किया जाये।
बचाव व रोकथाम : 10 किग्रा. फोरेट 10 जी बुवाई से पूर्व प्रयोग करें अथवा नीम की खली 10-15 कुन्तलध/हे. की दर से प्रयोग करें।
रोमिल इल्ली –
रोमिन इल्ली पत्तियों को खाकर पौधों को अंगविहीन कर देता है। पूर्ण विकसित इल्लियों पर घने भूरे बाल होते हैं। यदि इसका आक्रमण शुरू होते ही इनकी रोकथाम न की जाय तो इनसे फसल की बहुत बड़ी क्षति हो सकती है। इसकी रोकथाम के लिए आवश्यक है कि खेत में इस कीडे़ के दिखते ही जगह-जगह पर बन रहे इसके अण्डों या छोटे-छोटे इल्लियों से लद रहे पौधों या पत्तियों को काटकर या तो जमीन में दबा दिया जाय या फिर उन्हें घास-फॅूंस के साथ जला दिया जाय। इसकी रोकथाम के लिए क्विनलफास 1 लीटर कीटनाशी दवा को 700-800 लीटर पानी में घोल बना प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए।
मूंगफली की माहु –
सामान्य रूप से छोटे-छोटे भूरे रंग के कीडे़ होते हैं। तथा बहुत बड़ी संखया में एकत्र होकर पौधों के रस को चूसते हैं। साथ ही वाइरस जनित रोग के फैलाने में सहायक भी होती है। इसके नियंत्रण के लिए इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए
लीफ माइनर –
लीफ माइनर के प्रकोप होने पर पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके गिडार पत्तियों में अन्दर ही अन्दर हरे भाग को खाते रहते हैं और पत्तियों पर सफेद धारियॉं सी बन जाती हैं। इसका प्यूपा भूरे लाल रंग का होता है इससे फसल की काफी हानि हो सकती हैं। मादा कीट छोटे तथा चमकीले रंग के होते हैं मुलायम तनों पर अण्डा देती है। इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल छिड़काव कर देना चाहिए।
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सफेद लट –
मूंगफली को बहुत ही क्षति पहुँचाने वाला कीट है। यह बहुभोजी कीट है इस कीट की ग्रव अवस्था ही फसल को काफी नुकसान पहुँचाती है। लट मुखय रूप से जड़ों एवं पत्तियों को खाते हैं जिसके फलस्वरूप पौधे सूख जाते हैं। मादा कीट मई-जून के महीनें में जमीन के अन्दर अण्डे देती है। इनमें से 8-10 दिनों के बाद लट निकल आते हैं।
और इस अवस्था में जुलाई से सितम्बर-अक्टूबर तक बने रहते हैं। शीतकाल में लट जमीन में नीचे चले जाते हैं और प्यूपा फिर गर्मी व बरसात के साथ ऊपर आने लगते हैं। क्लोरोपायरिफास से बीजोपचार प्रारंभिक अवस्था में पौधों को सफेद लट से बचाता है। अधिक प्रकोप होने पर खेत में क्लोरोपायरिफास का प्रयोग करें । इसकी रोकथाम फोरेट की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टर खेत में बुवाई से पहले भुरका कर की जा सकती है।
मूंगफली की फसल पर लगने वाले रोग व उनकी रोकथाम –
1. मूंगफली क्राउन राट –
अंकुरित हो रही मूंगफली इस रोग से प्रभावित होती है। प्रभावित हिस्से पर काली फफूंदी उग जाती है जो स्पषट दिखायी देती है।
बचाव व रोकथाम : इसके लिए बीज शोधन अवश्य करना चाहिए।
2. डाईरूट राट या चारकोल राट –
नमी की कमी तथा तापक्रम अधिक होने पर यह बीमारी जड़ो में लगती है। जड़ो भूरी होने लगती हैं और पौधा सूख जाता है।
बचाव व रोकथाम : बीज शोधन करें। खेत में नमी बनाये रखें। लम्बा फसल चक्र अपनायें।
3. बड नेक्रोसिस –
शीर्ष कलियां सूख जाती हैं। बाढ़ रूक जाती है! बीमार पौधों में नई पत्तियां छोटी बनती हैं और गुच्छे में निकलती हैं! प्रायः अंत तक पौधा हरा बना रहता है, फूल–फल नहीं बनते!
बचाव व रोकथाम : जून के चौथे सप्ताह से पूर्व बुवाई न की जाय ! थ्रिप्स कीट जो रोग का वाहक है का नियंत्रण निम्न कीटनाशक दवा से करें! डाईमेथोएट 30 ई.सी. एक लीटर प्रति हेक्टर की दर से !
4. मूंगफली का टिक्का रोग (पत्रदाग) –
पहचान पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के गोल धब्बे बन जाते हैं, जिनके चारों तरफ निचली सतह पर पीले घेरे होते हैं। उग्र प्रकोप से तने तथा पुष्प शाखाओं पर भी धब्बे बन जाते हैं।
बचाव व रोकथाम : खड़ी फसल पर मैंकोजेव ( जिंक मैगनीज कार्बामेंट) 2 कि.ग्रा. या जिनेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 2.5 कि.ग्रा. अथवा जीरम 27 प्रतिशत तरल के 3 लीटर अथवा जीरम 80 प्रतिशत के 2 कि.ग्रा. के 2-3 छिड़काव 10 दिन के अन्तर पर करना चाहिए।
मूंगफली की फसल को कीटों व रोगों से बचाव (फसल सुरक्षा ) हेतु बिंदु –
– विभिन्न प्रजातियों के लिए निर्धारित बीज दर का ही प्रयोग करें एवं शोधित करके बोयें।
– समय से बुवाई करें एवं दूरी पर विशेष ध्यान दें।
– मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग संस्तुति के अनुसार अवश्य करें।
– विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का प्रयोग अवश्य करें।
– खूटिंयां एवं फली बनते समय (पानी की कमी पर ) सिंचाई अवश्य करें।
– फसल पूर्ण पकने पर ही खुदाई करें।
– कीट/रोगों का सामायिक एवं प्राभावी नियन्त्रण अवश्य करें।
– 20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर सल्फर का प्रयोग अवश्य करें।
मूंगफली का बीज उत्पादन –
मूंगफलीका बीज उत्पादन हेतु खेत का चयन महत्त्वपूर्ण होता है! मूंगफली के लिये ऐसे खेत चुनना चाहिए जिसमें लगातार 2-3 वर्षो से! मूगंफली की खेती नहीं की गई हो भूमि में जल का अच्छा प्रबंध होना !चाहिए। मूंगफली के बीज उत्पादन हेतु चुने गये खेत के चारों तरफ 15-20 मीटर! तक की दूरी पर मूंगफली की फसल नहीं होनी चाहिए।
बीज उत्पादन के लिये सभी आवश्यक कृषि क्रियायें जैसे खेत! की तैयारी, बुवाई के लिये अच्छा बीज, उन्नत विधि द्वारा बुवाई, खाद! एवं उर्वरकों का उचित प्रयोग, खरपतवारों ! एवं कीडे़ एवं बीमारियों का उचित नियंत्रण आवश्यक है।
अवांछनीय पौधों की फूल बनने से पहले एवं फसल !की कटाई के पहले निकालना आवश्यक है। फसल जब अच्छी तरह पक जाय तो खेत के चारों ओर ! का लगभग 10 मीटर स्थान छोड़कर फसल काट लेनी चाहिए तथा सुखा लेनी चाहिए! दानों में 8-10 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए। मूंगफली को !ग्रेडिंग करने के बाद उसे कीट एवं कवक नाशी रसायनों से !उपचारित करके बोरों में भर लेना चाहिए। इस प्रकार उत्पादित बीज को अगले !वर्ष की बुवाई के लिये उपयोग में लिया जा सकता है।
मूंगफली की खुदार्इ एवं भण्डारण –
यह देखा गया है कि कृषक बाजार में अच्छी कीमत लेने के उद्देश्य ! से तथा गेहूँ की बुवाई शीघ्र करने के उद्देश्य से मूंगफली की खुदाई ! फसल के पूर्ण पकने से पूर्व पकने से पूर्व कर लेते हैं। जिससे दाने! का विकास अच्छा नहीं होता दाना घटिया श्रेणी का होता है !और उपज कम हो जाती है। अतः इसकी खुदाई तभी करें जब मूंगफली के! छिलके के ऊपर नसें उभर आयें तथा भीतरी भाग कत्थई रंग का हो ! जाय और मूंगफली का दाना गुलाबी हो जाय।खुदाई के ! बाद फलियों को खूब सूखाकर भण्डारण करें। यदि भीगी मूंगफली किया जायेगा तो फलियां काले रंग की हो ! जायेंगी जो खाने एवं बीज हेतु सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं।
मूंगफली की फसल से प्राप्त उपज –
मूंगफली की खेती के लिए उन्नत विधियों के उपयोग करने पर मूंगफली की सिंचित ! क्षेत्रों में औसत उपज 20-25 क्विण्टल प्रति हेक्टर प्राप्त की जा सकती है! इसकी खेती में लगभग 25-30 हजार रुपये प्रति हेक्टर का खर्चा आता हैं! मूंगफली का भाव 30 रुपये प्रतिकिलो रहने पर 35 से 40 हजार रुपये प्रति हेक्टर का शुद्ध लाभ ! प्राप्त किया जा सकता है।
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